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शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

श्री सुकुमार राय द्वारा रचित काव्य का काव्यानुवाद

कागज़ कलम लिए बैठा हूँ सद्य 
आषाड़ में मुझे लिखना है बरखा का पद्य

क्या लिखूं क्या लिखूं समझ ना पाऊँ रे 
हताश बैठा हूँ और देखूं बाहर रे 

घनघटा सारादिन नभ में बादल दुरंत 
गीली-गीली धरती चेहरा सबका चिंतित 

नही है काम घर के अन्दर कट गया सारादिन 
बच्चों के फुटबोल पर पानी पड़ गया रिमझिम 

बाबुओं के चहरे पर नही है वो स्फूर्ति 
कंधे पर छतरी हाथ में जूता किंकर्तव्य विमूढ़ मूर्ती 

कही पर है घुटने तक पानी कही है घना कर्दम 
फिसलने का डर है यहाँ लोग गिरे हरदम 

मेढकों का महासभा आह्लाद से गदगद 
रातभर  गाना चले अतिशय बदखद


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