कागज़ कलम लिए बैठा हूँ सद्य
आषाड़ में मुझे लिखना है बरखा का पद्य
क्या लिखूं क्या लिखूं समझ ना पाऊँ रे
हताश बैठा हूँ और देखूं बाहर रे
घनघटा सारादिन नभ में बादल दुरंत
गीली-गीली धरती चेहरा सबका चिंतित
नही है काम घर के अन्दर कट गया सारादिन
बच्चों के फुटबोल पर पानी पड़ गया रिमझिम
बाबुओं के चहरे पर नही है वो स्फूर्ति
कंधे पर छतरी हाथ में जूता किंकर्तव्य विमूढ़ मूर्ती
कही पर है घुटने तक पानी कही है घना कर्दम
फिसलने का डर है यहाँ लोग गिरे हरदम
मेढकों का महासभा आह्लाद से गदगद
रातभर गाना चले अतिशय बदखद
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